शनिवार, 11 सितंबर 2010

मेरी नर्मदा परिक्रमा





लगभग 4 वर्ष पूर्व अमृतलालजी वेगड़ की अनुपम कृति "सौंदर्य की नदी नर्मदा" और  उसके  बाद  "अमृतस्य नर्मदा" दोनों  पुस्तके  पढ़ने  के  बाद  से  ही  मेरे  मन  में  नर्मदा  परिक्रमा  करने  का  विचार  दौड़  रहा  था| परन्तु  पारंपरिक  परिक्रमा  करने  का  3 वर्ष  3 महीने  13 दिन  का  समय  जो  पढ़  सुन  रखा  था  वह  मन  को  हमेशा  रोक  लेता  था| फिर  भी  मन  को  मनाने  के  लिए  कहे  या  अभ्यास  के  लिए, जब  भी  समय  मिलता  ओंकारेश्वर  क्षेत्र  के  आसपास  10-15 किलोमीटर  नर्मदाजी   के  किनारे  चलकर  मन  को  समझा  लेता  था  क्योकि  परिक्रमा  तो  वेगडजी  जैसे  टुकड़ो  टुकड़ो  में  भी  की  जा  सकती  थी  लेकिन  मन  में  तो  एक  ही  बार  में  पारंपरिक  रूप  से  परिक्रमा  करने  का  विचार  बन  चूका  था|

पिछले  वर्ष(2007) दिसम्बर  में  ही  विवेकानंद   युवा  महामंडल  के  अध्यक्ष  आर.एस. भाटीयाजी  के  नैतृत्व  में  20 सदस्यीय  दल  के  साथ  मोरटक्का  से  महेश्वर  तक  की  3 दिवसीय  नर्मदा  पर्यावर्निय  खोज  परिक्रमा  पूर्ण  की, जिससे  मन  को  और  अधिक  बल  मिला  तथा  इसी  वर्ष(2008) नर्मदा  समग्र  संस्था  द्वारा  बान्द्राभान, जिला-होशंगाबाद  में  आयोजित  अंतर्राष्ट्रीय  नदी  महोत्सव  में  भाग  लेने  से  और  नर्मदा  समग्र  के  सचिव  अनिल  दवेजी  को  सुनकर  मेरी  इस  यात्रा  के  लिए  नर्मदा  के  तटीय  इलाको  का  सर्वेक्षण, परिक्रमा  पथ  तथा  नर्मदा  पर्यावर्नीय  खोज  जैसे  उद्देश्य  मिल  गए| इसी  बिच  मुझे  बडवानी   के  पास  कोटेश्वरतीर्थ  जाने  का  मौका  मिला, वहा  एक  सज्जन  से  मुलाकात   हुई, नाम  तो याद  नहीं  पर बातो  ही  बातो  में  उन्होंने  बताया  की  वे  नर्मदा  परिक्रमा  कर  चुके  है, वह  भी  मात्र  9 महीनो  मे| मेरी  बढती  जिज्ञासा  को  देखते  हुवे  उन्होंने  कहा  शास्त्रोक्त  समय  3 साल  3 महीने  13 दिन  का  है  लेकिन  कम  से  कम  समय  में  भी  परिक्रमा  की  जा  सकती  है, मेरा घर-परिवार  बाल-बच्चे  सभी  है  इसलिए  मैंने  9 महीने  में  ही  परिक्रमा  कर  ली, और  तो  और  कुछ  लोग  तो  108 दिन  में  भी  परिक्रमा  कर  लेते  है| बस  और  क्या  चाहिए  था, जैसे  अंधे  को  आंखे  मिल  गयी  हो| अब  नर्मदा  प्रदक्षिणा  कह  लो, नर्मदा  परिक्रमा, किनारे  किनारे  जमीन नापना, नर्मदा  पर्यावर्निय  खोज  परिक्रमा, साहसिक  यात्रा  या  मेरा  दिमागी  फितूर  कुछ  भी  कह  लो  पर  मैं  तो  नर्मदा  परिक्रमा  पर  निकल  ही  पड़ा|

नर्मदा  परिक्रमा  साधारण  शब्दों  में  कहे  तो  नर्मदाजी  के  किनारे-किनारे  एक  तट  के  निश्चित स्थान  से  चलकर  दुसरे  तट  से  होते  हुए  पुनः  उसी  स्थान  पर  आना| इसमें  नर्मदाजी  की  धारा  को  कहीं  भी  लांघना  नहीं  होता और  नर्मदाजी  हमेशा  अपने  दाहिने हाथ की  और  होती  हैं| रास्तों में  जंगल पहाड़  प्राकृतिक  वातावरण  में  प्रकृति  के  इतने  करीब  रहने  का  मौका  मिलता  है  की  मन  अपने  आप  उच्चावस्था  की  और  अग्रसर  होने  लगता  है| पुरे  समय  ऐसे  अप्रतिम  आनंद  की  अनुभूति  होती  है  जिसका  वर्णन  शब्दों  में  नहीं  किया  जा  सकता  हैं|

नर्मदाजी  की  कुल  लम्बाई  तो  लगभग  1250 किलोमीटर  है  जिससे परिक्रमा  मार्ग  पहले  2600 किलोमीटर  का  हुआ  करता  था  लेकिन  अब  बांध  बनने  से  कही  कही  नर्मदाजी  की  चौड़ाई  50  किलोमीटर  तक  हो  जाने  से  परिक्रमा  मार्ग  लगभग  3500 किलोमीटर से  भी  ज्यादा  होता  जा  रहा  हैं  और  परिक्रमा  मार्ग  भी  बदलते  जा  रहे  हैं|

जो  लोग  नर्मदा  परिक्रमा  से  परिचित  नहीं  है  उनके  मन  में  यही  विचार  आता  है  की  लगभग  3500 किलोमीटर  की  पैदल  यात्रा  बिच  में  जंगल   पहाड़  भी  आते  है, फिर  भोजन  तथा  विश्राम  की  क्या  व्यवस्था  होती  होगी? रास्ते  में  लोग  मिलते  है  या  नहीं? लेकिन  नर्मदा  परिक्रमा  से  परिचित  लोग  जानते  है  की  माँ  नर्मदा  की  कृपा से  परिक्रमावासियो  को  कभी  भी  ना  तो  रुकने  की  समस्या  आती  है  और  ना  ही  भोजन  की| हर  5-10 किलोमीटर  पर  प्रत्येक  गाँव  में  आश्रम, धर्मशाला  या  मंदिरों  में  परिक्रमावासियो  के  रुकने  तथा  भोजन  की  व्यवस्था  मिल  जाती  है| प्रत्येक  गाँव  में  परिक्रमावासियो  का  जो  आदर  सत्कार  किया  जाता  है  उसे  देखकर  मन  भाव-विभोर  हो  जाता  हैं| हां  कहीं कहीं भोजन  खुद  अपने  हाथो  से  बनाना  पड़ता  है  और  विशेषकर  कुछ  क्षेत्रो  जैसे  मंडला और डिंडोरी में  अधिकतर  भिक्षा  मांग  कर  ही  भोजन  बनाना  पड़ता  है, जिसका  भी  अपना  ही  आनंद  है|

परिक्रमा  के  दोरान  एक महत्वपूर्ण  मार्ग  है  "शुलपाण  की झाड़ी" जिसके  बारे  में  जानने  के  बाद  नए लोग परिक्रमा  करने  से  डरते  हैं| क्योकि  शुलपाण  की झाड़ी  में  जाते  समय  वहा  आदिवासी  लोग लूटते| मुझे  परिक्रमा  के दोरान  वहा  से  जाने  का  सौभाग्य  तो  नहीं  मिला  लेकिन  मैं  ऐसे  कई परिक्रमावासियों  से  मिला  जो  झाड़ी  में  से  हो  कर  आये  थे| उन्होंने  बताया  की  अब  पहले  जैसी  बात  नहीं  रही| अब  वहा  लूट  बहुत  कम  हो  गयी  है| लूट  भी  अब  सिर्फ  नए  कपड़ो  तथा  बर्तन  की  ही  होती  है| हा  खास  बात  तो  यह  है  की  जो  आदिवासी  (जिन्हें  सब  प्यार  से  मामा  अर्थात  माँ  नर्मदा  के  भाई) कहते  है, लूटने  के  बाद  आगे  चलकर  वही  आदिवासी  अपने  घर  भोजन  भी  करवाते  है| वैसे अधिकतर  लोग  तो  उधर  से  जाते  ही  नहीं  है, क्योकि  सरदार  सरोवर  बांध  के  कारन  झाड़ी  का  क्षेत्र  डूब  में  आने से  मार्ग  अत्यंत  कठिन  हो  गया  है|

परिक्रमा  में  रास्ता  पुछते  पुछते चलना  पड़ता  है  लेकिन  फिर  भी  भटक  जाओ  तो  माँ  को  पुकार  लो  वो  किसी  ना किसी  को  तो  भेज  ही  देती  हैं| मैं  भी  गुजरात  में  एक  स्थान  पर  भटक  गया  चारो  तरफ  देखा  सिर्फ  पेड़  और  टीले  ही  दिख  रहे  थे  और  कोई  नहीं| एक  जगह  खड़े  होकर  तीन  बार  नर्मदे  हर, नर्मदे  हर  बोला और  चल  पड़ा  थोड़ी  देर  में  आवाज़  आई  "महाराज  किधर  जा  रहे  हो  वह  रास्ता  तो  गलत  है, वही  रुको  मैं  आता  हूँ| देखा  तो  एक  आदमी  आया, उसे  दूसरी  तरफ  जाना  था  फिर  भी  वह  रास्ता  बताने  के  लिए  मेरे  साथ  मेरे  रास्ते  पर  थोड़ी  दूर  तक  आया  और  फिर  दूर  से मुझे  एक  टीले  पर  नीम  का  पेड़  दिखाते  हुए  बोला  की  टीले  के  उस  तरफ  पगडण्डी  है  बस  उसी  पर  चले  जाना|  थोडा  चल  कर  मैंने  पीछे मुड़कर देखा  तो   वह  आदमी  मेरे  उस  पेड़  के पास  पहुचने  तक  भी  वही  खड़ा  रहा, मेरे  सही  रास्ते  पर  पहुचने  के  बाद  ही  वह  वहा  से  गया|

रास्ते  के  गाँव  में  अनेक  प्रेमी  संत  मिलते  हैं| ऐसे  ही  एक  संत  हैं  झगरिया  मढ़ी के  संत  श्री  श्री  1008  महामंडलेश्वर  जगदीशजी महाराज  बड़े  ही  प्रेमी  और  स्नेही  संत  हैं| उनके  मार्गदर्शन  में  1978 से यहाँ  अखंड  रामनाम  धुन  एवं  अखंड  रामायण  पाठ  चल  रहा  हैं और  दोनों  समय  भंडारा  चलता  हैं,  महाराजजी  बहुत  ही  विनम्र  और  दयालु  स्वाभाव  के  हैं| किसी  को  एक  दो  दिन  रोके  बगैर  तो  जाने  ही  नहीं  देते  है| हो  सके  तो  चातुर्मास  वही  बिताने  की  जिद  करते  हैं| मुझे  भी  रोक  ही  लिया, हाथ  पकड़कर  अन्दर  ले  जाकर  मेरा  स्थान  दिखाया| मुझे  बोले  चातुर्मास (जिसको  प्रारंभ  होने  में  ही  अभी   चार  महीने शेष  थे ) यही  करो, मेरे  मना   करने  पर  बोले  रामनवमी  तक  तो  रुकना  ही  पड़ेगा| बड़ी  मुश्किल  से  कल  सुबह  तक  छोड़ने  के  लिए  राजी  हुए| इनके  यहाँ  कई  साधू  संत  और  भक्त  कई-कई  दिनों  तक रहकर  कीर्तन  आदि  करते  हैं|

आजकल  नर्मदा  परिक्रमा उसके  पारम्परिक  स्वरुप  अर्थात  पैदल  के  अलावा  लोग  मोटर  साइकिल, बस  या   जीप  से  भी  करने  लगे  हैं| लेकिन  सभी  को  रेवासागरसंगम  अर्थात  माँ  नर्मदा  जहाँ  समुद्र  से  मिलती  है  उस  स्थान  को  तो  नाव  से  ही  पार  करना  पड़ता  हैं| एक  नाव  में  अधिकतम  30 सवारी  बैठ सकती  है, और  नाव  वाला 30 सवारी  होने  तक  नाव  नहीं  ले  जाता, चाहे  कितने  ही  दिन क्यों  लग  जाये| वैसे  तो  एक  दिन  में  ही  इतनी  सवारी  हो  जाती  है  लेकिन  कभी-कभी  2-3 दिन  भी  लग  जाते  है| में  तीसरे  दिन  जा  पाया| नाव  से  पर  करने  में  5 घंटे  लगते  हैं|

रेवासागर  संगम  पर  करने  के  बाद  हम  चार  लोग  साथ  हो  लिए  पहले  टीकमगढ़  के  रामचरणदासजी यादव  उम्र  कोई  60 साल, दुसरे  वृन्दावन  के  मोतिबाबा  उम्र  कोई  55 साल, तीसरे  सागर  के  पुरुषोत्तम  सिंह  लोधी  उम्र  कोई  45 साल  और  चौथा  मैं आशीष धांडे उम्र  कोई  अरे  कोई  क्यों  पूरी  27 साल| लगा  जैसे  चार  पीढ़िया  साथ  हो  चली  हो| सब  के  सब  एक  जैसे  तेज  चलने  वाले  साथ  हो  गए|

हर  दिन  अच्छा  ही  हो  ऐसा  भी  नहीं  हैं,  माँ  कभी-कभी  परीक्षा  भी  ले  लेती  है, आज  हम  चारो  का  एकादशी  व्रत  है| 8 किलोमीटर  पर  ही  मोतिबाबा  के  परिचित  संत   का  आश्रम  था  दोपहर  तक  ही  वहां पहुच  गए  लेकिन  गाँव  में  माँ  कनकेश्वरी  देवी  की  कथा  की  आज  पूर्णाहुति  होने  से  सबकी  भोजन  और  फरियाल  की  व्यवस्था  वही  पर  थी  सो  हमने  भी  वही  फरियाल  पाया  और  थोडा  आराम  करके  वह  से  चल  दिए| शाम  होते-होते  हमको  पता  चला  की  थोड़े  दुरी  पर  ही  दर्यापुर गाँव  में  बद्रिकाश्रम  है  जो  नर्मदा  किनारे  बहुत  ही  सुन्दर  एवं  प्रसिद्ध स्थान है, सो  हमने  वही  रुकने  का  मन  बनाया| रास्ते  में  एक  स्थान  पर  चरखी  से  गुड  बन  रहा  था  तो  थोडा  गुड  हमने  ले  लिया| आश्रम  पहुचते  पहुचते  काफी  देर  हो  गयी,  एकादशी  होने  से  हम  थोड़े  थक  भी  गए  थे  और  भूख  भी  जोरो  से  लग  रही  थी| आश्रम  पहुचते  ही  देखा  आरती  का  समय  हो  गया, मन  को  समझाया  की  थोडा  और  रुक  जा  आरती  खत्म  होते  ही  भोजन  प्रसाद  मिल  जायेगा| आरती  प्रारंभ  हुयी  और  चली  तो  लगभग  डेढ़  घंटे  तक  आरती  चलती  रही, मैंने  कहा  माँ  आज  तो  पूरी  परीक्षा  लेगी| आरती  समाप्त  हुयी, हम  सब  मंदिर  से  बाहर  आकर  भोजन  की  घंटी  का  इंतज़ार  करने  लगे| जब  10-15 मिनट  बाद  भी  घंटी  नहीं  बजी  तो  हमने  वही  के  एक  व्यक्ति  से  पुछा  तो  पता  चला  की  इस  आश्रम  में  तो  आरती  से  पहले  ही  भोजन  हो  जाता  है| फिर  क्या  था  हम  चारो  ने  गुड  पानी  में  घोलकर   पिया  और  नर्मदे  हर  करके  सो  गए|

मैंने  रामकृष्ण  मिशन, विवेकानंद   युवा  महामंडल  एवं  नेहरू  युवा  केंद्र  के  माध्यम  से  अब तक अनेक  अध्यात्मिक, बौद्धिक,  युवा  प्रशिक्षण  एवं  साहसीक  शिविरों  में  भाग  लिया  लेकिन  इस  75 दिवसीय  एकान्तिक  भ्रमणीय   शिविर  से  जो  अनुभव  एवं  उर्जा  मिली  वह  मेरे  जीवन  की  श्रेष्टतम  उपलब्धि  है| इन  75 दिनों  की  नियमित  दिनचर्या, ब्रह्ममुहुर्त  में  स्नान, सूर्यास्त  दर्शन, पुरे  समय  नर्मदा  दर्शन, अनेक  मंदिरों  तीर्थ  एवं  सिद्ध  क्षेत्रो  के  दर्शन, प्रकृति  से  निकटता, रमणीक  प्राकृतिक  स्थानों  का  भ्रमण, अपने  राष्ट्र  के  तीन  राज्यों  मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र  एवं  गुजरात  के  अनेक  क्षेत्रो  की  संस्कृति, वेशभूषा, रहन  सहन  एवं  जैव-विविधता  आदि  को  निकट  से  जानने  समझने  के  अवसर  तथा  उनका  अनुभव  अवर्णनिय  है| इस  परिक्रमा  में  मुझे  माँ  नर्मदा  के  निकट  रहकर  बहुत  कुछ  सिखने  समझने  का  अवसर  मिला| अभी  भी  जब  कभी  समय  मिलता  है  मैं  अपने  विवेकानंद  युवा  महामंडल  के  साथियों  के  साथ  2,3 या  5 दिन  की  छोटी-छोटी  परिक्रमा  करने  का  अवसर  कभी  भी  छुटने  नहीं  देता  हूँ|

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

मेरा परिचय

मेरे ब्लॉग में आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ|

मैं आशीष धांडे, इंदौर में रहता हूँ| मेरे आदर्श स्वामी विवेकानंद हैं| 

मैं प्रेस फोटोग्राफर, न्यूज़ रिपोर्टर, समाजसेवक, बाइक राइडर एवं इन्वेस्टीगेटर के तौर पर कार्य करता हूँ| 

प्रकृति के नजदीक रहना मुझे काफी पसंद हैं| साहित्य (विशेषकर रामकृष्ण-विवेकानंद साहित्य) पढ़ना, लम्बी बाइक राइडींग करना मेरे शौक हैं| मैं १९९६ से विवेकानंद युवा महामंडल के माध्यम से कार्य कर रहा हूँ| 

२००८ में लगभग ३००० किलोमीटर की नर्मदा परिक्रमा पैदल कर चूका हूँ और २००९ में यूथ होस्टल्स असोसीएशन ऑफ़ इंडिया के माध्यम से दिल्ली से चलकर मनाली-लेह-खार्दुन्गला-लेह-कारगिल-श्रीनगर-जम्मू-लुधियाना से दिल्ली होते हुए इंदौर तक लगभग ३५०० किलोमीटर की सोलो बाइक राइडींग कर चूका हूँ| 

मेरे ब्लॉग पर आप मेरे इन्ही कार्यो से सम्बंधित अनुभवो का आदान प्रदान कर सकते हैं, धन्यवाद|